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सातवां वेतन आयोग: तय हो कार्यकुशलता-जवाबदेही भी

तय हो कार्यकुशलता-जवाबदेही भी – दैनिक ट्रिब्यून संपादकीय 

आगामी बजट में वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती सातवें वेतन आयोग से पड़ने वाले भार को वहन करते हुए अर्थव्यवस्था को गति देने की है। आयोग द्वारा सरकारी कर्मियों के वेतन में लगभग 23 प्रतिशत की वृद्धि की संस्तुति की गई है। फलस्वरूप केन्द्र सरकार के बजट पर लगभग एक लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ने को है। वर्ष 2014-2015 में केन्द्र सरकार के कुल खर्च लगभग 18 लाख करोड़ रुपये थे। इन खर्चों में पांच प्रतिशत की वृद्धि केवल सरकारी कर्मियों के बढ़े हुए वेतन देने के कारण होगी। जाहिर है कि ऐसे में सरकार के द्वारा अन्य खर्चों यथा मनरेगा, बुलेट ट्रेन अथवा राफेल फाइटर प्लेन पर खर्च बढ़ाने में कठिनाई आयेगी।  सरकार के सामने कठिन चुनौती है। सरकारी कर्मियों तथा जनहित कार्यक्रमों में से किसी एक को चुनना है। इस समस्या का हल बजट की आंकड़ेबाजी से नहीं हो सकता। सरकार के राजस्व का अधिकाधिक उपयोग कर्मचारियों के वेतन देने में किया जा रहा हो तो बजट के महीन बिन्दुओं पर चर्चा निरर्थक होती है। जरूरी है कि सरकारी कर्मियों की मूल भूमिका पर पुनर्विचार किया जाये।


सातवें वेतन आयोग के टर्म्स आफ रिफरेंस में कहा गया था कि वेतनमान इस तरह से निर्धारित किये जायें कि कर्मियों में कार्यकुशलता, जवाबदेही एवं जिम्मेदारी स्थापित हो। लेकिन सरकारी कर्मियों का मूल चरित्र इस उद्देश्य से मेल नहीं खाता। मनुस्मृति में कहा गया है कि ‘राजा द्वारा जनता की रक्षा को नियुक्त कर्मी अधिकतर दूसरों की सम्पत्ति को हरने वाले और बेईमान होते हैं। इनसे राजा जनता की रक्षा करे।’(7.123)। सरकारी कर्मियों के इस व्यवहार को देखते हुए इनके माध्यम से सुशासन उपलब्ध कराना जंगली घोड़े से युद्ध जीतने जैसा है।
किसी पशुपालक ने घोड़े को पाला कि गाय के झुंड को वह नियंत्रित कर सके। गाय इधर-उधर खो जाये तो घोड़े पर सवारी करके उसे वापस लाया जा सके। लेकिन गाय के दाना चारा में कटौती करके घोड़े को गुड़ खिलाने से मूल उद्देश्य ही पलट जाता है। गाय ही मर गई तो घोड़ा किस काम का? सरकारी कर्मियों को आम जनता के पोषण और रक्षण के लिये नियुक्त किया जाता है। आम जनता का पेट काटकर सरकारी कर्मियों का पेट भरने और जनता को सुख देने का मूल उद्देश्य ही निरस्त हो जाता है। विश्व बैंक द्वारा किये गये एक अध्ययन में 1990 के दशक में विभिन्न देशों के सरकारी कर्मियों के वेतन की तुलना उन्हीं देशों की जनता की औसत आमदनी से की गई। पाया गया कि इंडोनेशिया में सरकारी कर्मियों तथा नागरिकों की औसत आय का अनुपात 1.0 था, चीन में 1.2, अमेरिका में 1.4, कोरिया में 1.5, अर्जेंटीना में 1.9 तथा सिंगापुर में 2.9। भारत में यह अनुपात 4.8 पर सर्वाधिक था। अर्थ हुआ कि जनता पर टैक्स लगाकर सरकारी कर्मियों को बढ़े वेतन देने में हम पूर्व में ही अव्वल थे। छठे एवं अब सातवें वेतन आयोग द्वारा दी गई वेतन वृद्धि के बाद यह प्रक्रिया और गहरी हो गई है।
वेतन आयोग ने वेतन वृद्धि की संस्तुति दी है कि कर्मी को आरामदेह जीवन देने के लिये पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिये। परन्तु यह पूछने की जरूरत थी कि रिक्शे वाले को आरामदेह जीवन जीने का अधिकार नहीं है क्या? 5,000 रुपये प्रति माह कमाने वाले रिक्शे वाले पर टैक्स लगाकर 30,000 रुपये कमाने वाले सरकारी कर्मी के वेतन बढ़ाने का क्या औचित्य है? वास्तव में वेतन आयोग का गठन ही अनैतिक तरीके से हुआ है। आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त जज थे, एक सदस्य सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी थे और तीसरे सरकारी प्रोफेसर। आयोग द्वारा दी गई संस्तुतियों में तीनों सदस्य लाभान्वित होते हैं।
आयोग ने 23 प्रतिशत वेतन वृद्धि की संस्तुति इस आधार पर की है कि छठे वेतन आयोग की तुलना में सातवें वेतन आयोग का सरकारी राजस्व पर कम भार पड़ेगा। छठे वेतन आयोग के कारण सरकार के राजस्व खर्चे में 4.32 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी जो कि सातवें वेतन आयोग में केवल 4.25 प्रतिशत रहेगी। सातवें वेतन आयोग को सरकारी कर्मियों की वेतन वृद्धि का अर्थव्यवस्था और आम आदमी पर प्रभाव पर विचार करना था।
सरकारी कर्मियों की समाज में दो भूमिकायें हैं। एक भूमिका जरूरी सार्वजनिक सुविधाओं को उपलब्ध कराने की है, जैसे-पुलिस, रक्षा, मुद्रा तथा रेल इत्यादि। इन क्षेत्रों में सरकार का कोई विकल्प नहीं है। दूसरी भूमिका प्राथमिकता के क्रम में दूसरी सुविधाओं को उपलब्ध कराने की है, जैसे-स्वास्थ्य, शिक्षा, बाल कल्याण इत्यादि। हमने सरकारी कर्मियों की एक भारी फौज इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने को बना रखी है। आज सरकारी विद्यालय का अध्यापक 30,000 रुपये प्रति माह का वेतन हासिल करता है और उसके पढ़ाये गये आधे बच्चे फेल होते हैं। तुलना में प्राइवेट स्कूलों के अध्यापक 6,000 रु. वेतन पाते हैं और उनके पढ़ाये गये 90 प्रतिशत बच्चे पास होते हैं। इन सामाजिक सुविधाओं में सरकार की भूमिका पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। समाज में राज्य की भूमिका सीमित होनी चाहिये। जो कार्य समाज स्वयं सम्पादित कर सकता है, उसमें सरकार की दखलअंदाजी नहीं होनी चाहिये। आयोग को जरूरी और गैर-जरूरी सरकारी कर्मियों के वेतन में अन्तर करना चाहिये था।
सरकार को सातवें वेतन आयोग को लागू करने पर सावधानी से विचार करना चाहिये। विषय सरकारी कर्मियों को उपयुक्त वेतन देने मात्र का नहीं है। विषय है जनता को राहत पहुंचाने का। देश को आगे बढ़ाना है तो जनता पर सरकारी कर्मियों के भार को कम करना होगा। यह देश दो करोड़ सरकारी कर्मियों का नहीं है। यह देश 128 करोड़ गैर सरकारी कर्मियों का पहले और उनकी सेवा को नियुक्त हुए 2 करोड़ सरकारी कर्मियों का बाद में है।
बहरहाल वेतन आयोग ने अपनी रपट सरकार को सौंप दी है। सरकार ने सचिवों की एक कमेटी बनाकर रपट पर अन्तिम निर्णय लेने को कहा है। यह प्रक्रिया मूलतः विकृत है। वेतन आयोग के तीनों सदस्य सरकारी कर्मी अथवा वेतन भोगी थे। सरकारी कर्मियों की वेतन वृद्धि से ये स्वयं लाभान्वित होते हैं। अतः इनसे आम आदमी या राष्ट्रहित की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

अब सरकार ने सचिवों की कमेटी बनाई है। ये भी दी गई संस्तुतियों से लाभान्वित होंगे। सरकार को चाहिये कि इस कमेटी में कम से कम चार गैर सरकारी व्यक्तियों को नियुक्त करे। जैसे बार एसोसिएशन, इंस्टीट्यूट आफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स, कान्फेडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्री तथा इंडियन इकानोमिक एसोसिएशन के अध्यक्षों को कमेटी में शामिल किया जा सकता है। तब ही देश और जनहित को देखते हुए निर्णय लिया जा सकता है।

Read at: Dainik Tribune

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